माहेश्वरी जी की कोई 40 से ज्यादा बाल पुस्तकें प्रकाशित हैं, जिनमें बालगीत, बाल कथागीत, गीत, कविताओं व संस्मरण आदि की पुस्तकें हैं. साक्षरता से जुड़ी भी उनकी कई पुस्तकें हैं जिन्होंने साक्षरता के प्रसार में अहम भूमिका निभाई है. 'बाल गीतायन' उनके बालगीतों का एक बेहतर चयन कहा जा सकता है, जो 80 के दशक में बेहतरीन आकल्पन के साथ प्रकाशित हुआ था. उन पर इन पंक्तियों के लेखक ने 'द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी: सृजन और मूल्यांकन' शीर्षक पुस्तक लिखी है तथा उनकी रचनावली भी संपादित की है
'यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता, सोने का सिंहासन होता सिर पर मुकुट चमकता...', 'सूरज निकला चिड़िया बोलीं, कलियों ने भी आंखें खोलीं' या 'वीर तुम बढ़े चलो, धीरे तुम बढ़े चलो, सामने पहाड़ हो, सिंह की दहाड़ हो...' जैसे कितने ही गीत हैं जिन्हें कम से कम तीन पीढ़ियों ने बचपन में पढा और गुनगुनाया है. एक वक्त था जब बच्चों के लिए अच्छे प्रार्थनागीत तक नहीं मिलते थे. आजादी की लड़ाई के लिए प्रयाण गीत नहीं मिलते थे. खादी पर, चरखे पर, झंडे पर, सत्याग्रह पर, राष्ट्रीय भावना पर गीतों की कमी थी. माहेश्वरी जी ने श्यामलाल गुप्त पार्षद, सोहनलाल द्विवेदी, निरंकार देव सेवक, हरिकृष्ण देवसरे व डॉ श्रीप्रसाद आदि के साथ मिल कर ऐसे गीतों की कमी पूरी की. बेसिक शिक्षा परिषद व शिक्षा विभाग से जुड़े होने के नाते द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने यह बीड़ा उठाया कि 4 से 14 साल के बच्चों के लिए ऐसे गीत लिखे जाएं जो उनमें संस्कार पैदा करें साथ ही वे छंद व कथ्य की दृष्टि से उत्तम हों. उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठा कवियों की रचनाएं पाठ्यक्रम में रखवाईं ताकि बच्चों का मानसिक स्तर उन्नत हो. यद्यपि उन्होंने प्रौढ़ों के लिए भी कई काव्य-कृतियां लिखीं किन्तु उनका बाल साहित्यिकार ही प्रमुखता से जाना पहचाना गया.